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मध्य प्रदेश: जब न्याय और प्रशासन जनता के लिए बोझ बन जाएँ

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मध्य प्रदेश  Published by: Kamal Patni , Date: 10/11/2025 11:07:00 am Share:
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  • 10/11/2025 11:07:00 am
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संक्षेप

मध्य प्रदेश: भारत का लोकतंत्र “जनता के लिए, जनता द्वारा और जनता का” कहा जाता है। पर आज जब जनता ही न्याय, प्रशासन और सरकार से डरी हुई है   तब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है

विस्तार

मध्य प्रदेश: भारत का लोकतंत्र “जनता के लिए, जनता द्वारा और जनता का” कहा जाता है। पर आज जब जनता ही न्याय, प्रशासन और सरकार से डरी हुई है   तब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या ये संस्थाएँ वास्तव में जनता की हैं, या केवल पद, प्रतिष्ठा और विशेषाधिकार का दुर्ग बन चुकी हैं? न्याय का मंदिर और जनता का मौन कभी न्यायपालिका को “लोकतंत्र का मंदिर” कहा गया था।  कहा गया कि जब सब द्वार बंद हों, तब यह मंदिर खुला रहेगा परंतु आज वह मंदिर भी औपचारिकता का भवन बन गया है, जहाँ सच्चाई का प्रवेश कठिन और न्याय की प्राप्ति दुर्लभ हो गई है। मुकदमे वर्षों तक लटकते हैं, सच्चे पक्षकार बूढ़े हो जाते हैं, और जब निर्णय आता है, तब तक न्याय का अर्थ खो चुका होता है। माई लार्ड” कहकर झुकना परंपरा हो सकती है, लेकिन जब न्यायाधीश जनता की पीड़ा सुनने में उदासीन हो जाएँ, तो यह संबोधन एक व्यंग्य बन जाता है। M.C. Singla केस: न्याय का विलंब, अन्याय का स्थायित्व भारत के लाखों सेवानिवृत्त बैंक पेंशनर्स आज इसी न्यायिक विलंब और प्रशासनिक असंवेदनशीलता का सबसे बड़ा उदाहरण हैं।

सुप्रीम कोर्ट में चल रहा M.C. Singla बनाम Union of India एवं अन्य मामला (जो बैंक पेंशन अपडेशन से संबंधित है) वर्षों से सुनवाई में लंबित है। इस बीच हजारों बुजुर्ग पेंशनर्स — जिन्होंने अपने जीवन का स्वर्णिम समय देश की बैंकिंग सेवा में दिया आज भुखमरी, बीमारी और असमानता से जूझ रहे हैं। भारतीय रिज़र्व बैंक, LIC, और केंद्र सरकार के कर्मचारियों के पेंशन फॉर्मूले नियमित रूप से अपडेट होते हैं। परंतु राष्ट्रीयकृत बैंकों के पेंशनर्स को वही पुरानी दरों पर पेंशन मिल रही है, जो 1990 के दशक में तय हुई थी। समान काम, समान पेंशन” की संवैधानिक अवधारणा यहाँ सिर्फ़ किताबों में रह गई है। जब यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष पहुँचा, तब भी यह “एक और लंबित याचिका” बन गया जिसमें न्याय की प्रतीक्षा ही जीवन की सबसे बड़ी सजा बन गई। क्या यही है वह न्यायपालिका जिसे हम “भगवान का मंदिर” कहते हैं?
प्रशासन — भय, भ्रष्टाचार और क्रूरता का तंत्र न्यायपालिका की तरह प्रशासन भी अब सेवा नहीं बल्कि सत्ता का प्रतीक बन गया है। जनता को न्याय मांगने से पहले डरना सिखाया जाता है RTI डालो तो जवाब झूठा मिलता है; शिकायत करो तो नोटिस आ जाता है; आवाज़ उठाओ तो “कानूनी कार्यवाही” की धमकी मिलती है।

संभागायुक्त से लेकर कलेक्टर, तहसीलदार, निगम आयुक्त, कर अधिकारी  सब जनता के नाम पर, जनता के पैसे से वेतन लेते हैं; पर जनता के सामने राजा और दरबार की तरह व्यवहार करते हैं। नगर निगमों में भ्रष्टाचार, राजस्व विभाग में रिकॉर्ड छेड़छाड़,
टैक्स विभागों में उत्पीड़न और पुलिस में भय इन सबने जनता के भीतर “सरकार से डरने” की संस्कृति को स्थायी बना दिया है।जब प्रशासन का चेहरा ही भय का पर्याय बन जाए, तो “लोकतंत्र” का अर्थ बदलकर “लोक आतंक” रह जाता है। बक पेंशनर्स की पीड़ा — एक राष्ट्रीय अन्याय बैंक पेंशनर्स का संघर्ष अब केवल आर्थिक नहीं रहा; यह नैतिक और संवैधानिक प्रश्न बन चुका है। किसी भी सभ्य समाज में बुजुर्गों के अधिकारों की रक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए,

परंतु यहाँ लाखों वृद्ध बैंककर्मी आज भी अपने ही वैध अधिकारों के लिए न्यायालयों के चक्कर काट रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट से न्याय मिलने की आशा थी, पर अब वहाँ तारीख़ पर तारीख़ का सिलसिला है। सरकारें बदलती हैं, पर आदेश नहीं आता। IBA (इंडियन बैंक्स एसोसिएशन) और वित्त मंत्रालय एक-दूसरे पर जिम्मेदारी डालते हैं। और इस बीच हर महीने कोई न कोई पेंशनर न्याय की प्रतीक्षा में इस दुनिया से चला जाता है। न्याय केवल निर्णय देना नहीं है, न्याय समय पर निर्णय देना भी है। विलंबित न्याय, अन्याय से भी अधिक क्रूर होता है। जनता बनाम सत्ता — नई विभाजन रेखा भारत में अब समाज दो हिस्सों में बँट चुका है एक ओर सत्ता और उसके लाभार्थी, और दूसरी ओर आम जनता जो अपनी मेहनत और कर से इस व्यवस्था को चलाती है।
पर जब वही व्यवस्था जनता के खिलाफ खड़ी हो जाए,
तो यह लोकतंत्र नहीं, तंत्रवाद बन जाता है।

न्यायालय”, “प्रशासन”, “विभाग”, “आयुक्त इन सब शब्दों का उद्देश्य जनता की सेवा था, पर अब ये भय, रिश्वत और दिखावे के पर्याय बन गए हैं। न्याय का अर्थ बदलने की आवश्यकता न्याय केवल अदालत की चारदीवारी में नहीं, बल्कि हर सरकारी कार्यालय, हर अधिकारी के व्यवहार, और हर निर्णय में होना चाहिए। सच्चा न्यायाधीश वह नहीं जो लोगों को झुकने पर मजबूर करे, बल्कि वह जो लोगों को सीधा खड़ा होकर सच बोलने का साहस दे। सच्चा अधिकारी वह नहीं जो जनता को डराए, बल्कि वह जो जनता के डर को दूर करे। जब यह भावना लौट आएगी, तभी इस देश को दोबारा “न्याय का मंदिर” कहने का अधिकार मिलेगा। निष्कर्ष: अब पूजा नहीं, जवाबदेही चाहिए आज भारत को “भगवानों” की नहीं, “जिम्मेदार सेवकों” की ज़रूरत है न्यायाधीश हों या कलेक्टर, पुलिस अधिकारी हों 

या बैंक चेयरमैन  सभी को यह याद रखना होगा कि उनका पद जनता के विश्वास से टिका है बैक पेंशनर्स के न्याय की प्रतीक्षा केवल एक वर्ग का संघर्ष नहीं, बल्कि यह पूरे भारत के बुजुर्ग नागरिकों के सम्मान और अस्तित्व की लड़ाई है। यदि न्यायपालिका, प्रशासन और सरकार  तीनों मिलकर भी इस पीढ़ी को उसका वैध अधिकार नहीं दे पा रहे, तो फिर यह कहना कि “यह न्याय का मंदिर है” सिर्फ़ एक पवित्र झूठ है। जहाँ भय है, वहाँ भगवान नहीं। जहाँ अन्याय है, वहाँ मंदिर नहीं। जहाँ जनता अपमानित है, वहाँ लोकतंत्र नहीं — केवल शासन है।


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